
जालंधर 02 अक्टूबर (धर्मेन्द्र सौंधी) : आज दशहरा, विजयदशमी है। हर त्योहार एक संदेश लेकर आता है। विजयादशमी का मतलब ही है – विजय का दिन। कहते हैं कि आज के दिन श्रीराम जी ने रावण का वध किया और सीता माँ को वापिस ले आए। पर ये कहानी सिर्फ बाहरी युद्ध की नहीं है, ये एक खेल है, समझने वाला खेल।
सोचो – सबसे पहले आते हैं श्राद्ध, यानि उन आत्माओं को याद करना जिन्होंने शरीर छोड़ दिया। फिर आती है नवरात्रि – माँ के लिए श्रद्धा जगाने के नौ दिन। और उसके बाद आती है विजयादशमी – किसकी विजय? श्रद्धा वाले की विजय! जिसने नौ दिन माँ में श्रद्धा जगाई, उसकी भक्ति की विजय का उत्सव है ये।
दशहरा है भक्ति की जीत का प्रतीक। जैसे सीता माता – रावण जैसे विराट अहंकारी के पास बैठी रहीं, उसके अत्याचार सहे, पर उनके भीतर सिर्फ श्रीराम का नाम चलता रहा। ‘मैं’ (अहंकार) के सामने बैठकर भी उनके भीतर ‘तू-तू’ चलता रहा – श्रीराम! श्रीराम! यही है भक्ति। चूक भी हुई, सोने के हिरण (माया) की चाह में गलती हुई, पर चूक को मान लिया, प्रायश्चित किया और फिर भी राम का नाम नहीं छोड़ा। इसलिए अंत में जीत सत् की हुई – राम नाम सत् है, और सत् की हमेशा जीत होती है।
अब देखो रावण को – इतना बड़ा विद्वान, चारों वेदों का ज्ञाता, तपस्वी, हवन करने वाला। दस सिर इसलिए कहे जाते हैं कि उसने बार-बार अपना सिर काटकर हवन कुंड में चढ़ाया, पर जब भी सिर जुड़ता, अहंकार और बढ़ता। पूजा-पाठ, तपस्या सब की, वरदान भी मिला, पर ब्रह्म को ना पाया। क्यों? क्योंकि चाह थी माया की। बँगला, दौलत, गाड़ी, ऊँची कुर्सी – इन सब से क्या बढ़ता है? अहंकार! और अहंकार से ब्रह्म कभी नहीं मिलता।
रावण ने वरदान पाया, शक्ति पाई, पर ब्रह्म की चाह ना की। और जिसने ब्रह्म को ना चाहा, उसे मृत्यु मिली, अमरता नहीं। इतना विराट राक्षस, इतनी विद्या, इतनी तपस्या, पर अंत में हार गया।
और ये सब क्यों हुआ? क्योंकि श्रद्धा राम में नहीं थी। अगर श्रद्धा से राम को भीतर बुलाता, तो खेल ही बदल जाता। फिर न रामायण होती, न ये कथा।
तो आज का संदेश साफ है – दशहरा बाहर रावण जलाने का दिन नहीं, भीतर अहंकार के रावण को जलाने का दिन है। जो भी ‘मैं’ (अहंकार) के पार जाकर ‘तू’ (राम) में टिकेगा, उसकी ही सच्ची विजय होगी।
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